
भारतीय संस्कृति के अग्रदूत -
प्राचीन काल में हमारे देश में कुछ ऐसे महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने भारतीय संस्कृति के आलोक को दूर-दूर तक चलाया। ऐसे महापुरुषों में ऋषि अगस्त्य, महर्षि पतंजलि तथा ऋषि याज्ञवल्क्य का नाम सम्मान पूर्वक लिया जाता है। महर्षि अगस्त्य ने सर्वप्रथम सनातन धर्म, कला, संस्कृति, भाषा आदि का प्रचार सुदूर दक्षिण भारत समेत जावा, सुमात्रा, बोर्नियो आदि द्वीपों तक किया।
महर्षि पतंजलि ने "महाभाष्य" की रचना कर भाषा-साहित्य, धर्म, भूगोल, इतिहास, समाजशास्त्र आदि की गहन समीक्षा की। ऋषि याज्ञवल्क्य ने 'याज्ञवल्क्य स्मृति' की रचना कर सामाजिक रीतियों, परंपराओं, मान्यताओं को नियमबद्ध किया। इसलिए इन तीनों महापुरुषों का भारतीय संस्कृति के विकास में महत्वपूर्ण योगदान है।
√ महर्षि अगस्त्य -
महर्षि अगस्त्य का जन्म काशी (वाराणसी) में हुआ था। इनके जन्मकाल का कोई साक्ष्य नहीं मिलता। यह शैव मत के अनुयायी थे तथा काशी विश्वनाथ मंदिर में पूजा-पाठ करते थे। इनके जीवन का लक्ष्य धर्म का प्रचार करना था। शैव मत के प्रचार के लिए वे दक्षिण भारत गए। इनसे पूर्व किसी ने विद्यांचल को पार कर दक्षिण जाने का साहस नहीं किया था।
विंध्याचल का दक्षिणी भाग घने जंगलों से भरा था। अगस्त्य ने अपने परिश्रम तथा ज्ञान के बल पर स्थानीय लोगों को शिष्य बना कर उनकी सहायता से जंगल कटवाया। यहां उन्होंने नगरों तथा आश्रमों की स्थापना कर यहां के निवासियों को कला कौशल सिखाया तथा शैव मत का प्रचार किया। पांड्य देश के राजा इन्हें देवता की भांति पूजने लगे। यहां अगस्त्य ने आयुर्वेद का प्रचार किया। भाषा का संस्कार किया तथा मूर्तिकला का ज्ञान दिया। यहां धर्म, कला, संस्कृति, भाषा आदि का सशक्त प्रचार एवं स्थापना करने के बाद महर्षि अगस्त्य भारत से बाहर निकले।
भारत से बाहर महर्षि अगस्त्य समुद्री यात्राएं करते हुए अनेक द्वीपों एवं देशों में पहुंचे। इन देशों में इन्होंने सनातन धर्म एवं संस्कृति का प्रचार किया। इन्होंने समुद्री यात्राओं में महारत हासिल कर ली थी। इसलिए लोग इन्हें कहते हैं कि महर्षि अगस्त्य समुद्र पी गए थे। कंबोडिया में शिलालेख के अनुसार -
ब्राह्मण अगस्त्य आर्य देश के निवासी थे। वे शैव मत के अनुयायी थे। उनमें अलौकिक शक्ति थी। उसी के प्रभाव से वे इस देश तक पहुंचे। यहां आकर उन्होंने भुवदेश्वर नामक शिवलिंग की पूजा अर्चना बहुत काल तक की। यहीं वे परमधाम को पधारें।
कहा जाता है कि अगस्त्य कंबोडिया देश के आगे भी गए तथा आसपास के द्वीपो में भारतीय संस्कृति का प्रकाश फैलाया। भारत से बाहर सुदूर देशों तक जाकर भारतीय संस्कृति एवं धर्म का प्रचार करने वालों में महर्षि अगस्त्य प्रथम व्यक्ति थे।
√ महर्षि पतंजलि -
महर्षि पतंजलि प्राचीन भारत के लब्ध प्रतिष्ठित विद्वानों में से एक थे। इनके जन्म के विषय में कोई पुष्ट प्रमाण नहीं मिलता है। ये पाटलिपुत्र के राजा पुष्यमित्र शुंग के समकालीन माने जाते हैं। ये अपने दो मुख्य कार्य के लिए विख्यात हैं। प्रथम तो व्याकरण की पुस्तक 'महाभाष्य' के लिए तथा द्वितीय पाणिनि के 'अष्टाध्यायी की टीका' लिखने के लिए। उन्होंने 'योगशास्त्र' की भी रचना की।
महर्षि पतंजलि ने 'महाभाष्य' की रचना काशी में की। काशी में "नागकुआं" नामक स्थान पर इस ग्रंथ की रचना हुई थी। नागपंचमी के दिन कुएं के पास अब भी अनेक विद्वान एवं विद्यार्थी एकत्र होकर संस्कृत व्याकरण के संबंध में सशस्त्र करते हैं। महाभाष्य व्याकरण का ग्रंथ है किंतु इसमें साहित्य, धर्म, भूगोल, समाज, रहन-सहन आदि से संबंधित तथ्य मिलते हैं। पतंजलि की मृत्यु के दो-तीन सौ साल बाद इनकी पुस्तक लुप्त हो गई क्योंकि उस युग में छापने की मशीन नहीं थी। हाथ से लिखी पुस्तकों की एकाध प्रतियां होती थी। आज से लगभग 1100 वर्ष पहले कश्मीर के राजा जयादित्य ने बड़े परिश्रम से इस पुस्तक की खोज की। उन्होंने पूरी पुस्तक लिखवाकर अपने राज्य में उसका प्रचार करवाया। तब से आज तक इसकी पढ़ाई होती चली आ रही है। आज जो 'महाभाष्य' का ज्ञान नहीं रखता है, उसे संस्कृत भाषा का मर्मज्ञ नहीं माना जाता। पतंजलि ने संस्कृत भाषा को वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया। इतने प्राचीन काल में विश्व के किसी भी देश के व्याकरण का ऐसा विद्वान नहीं हुआ। महर्षि पतंजलि उन महान पुरुषों में से है, जो एक देश में जन्म लेकर भी पूरे विश्व के हो जाते हैं।
√ ऋषि याज्ञवल्क्य -
ऋषि याज्ञवल्क्य के जन्म स्थान एवं समय के विषय में कोई प्रमाण नहीं मिलता है। याज्ञवल्क्य नाम के दो विद्वान हुए हैं। एक महाराजा जनक के समय में थे, तथा दूसरे युधिष्ठिरर के शासनकाल में। ये दूसरे याज्ञवल्क्य हैं।
इन्होंने धर्मशास्त्र की रचना की जिसे 'याज्ञवल्क्य-स्मृति' कहते हैं। स्मृति, उस ग्रंथ को कहा जाता है, जिसमें आचार- व्यवहार, नियम-कानून आदि की व्यवस्था दी जाती है। आजकल जिसे कानून कहते हैं, उसे प्राचीन काल में धर्मशास्त्र कहा जाता था। इस ग्रंथ को "याज्ञवल्क्य संहिता के नाम से भी जाना जाता है।
याज्ञवल्क्य-स्मृति में 1012 श्लोक हैं जो 3 अध्यायों में विभक्त हैं। इसमें मनुष्य के जीवन से संबंधित प्रत्येक विषय में नियम बनाए गए हैं। इस पुस्तक का अनुवाद कई भाषाओं में हो चुका है। इस पर अनेक टिकाएं बनी है जिनमें 'मिताक्षरा' तथा 'दायभाग' विशेष प्रसिद्ध है। हिंदू कानून के लिए यह पुस्तक आज भी प्रमाणिक मानी जाती है। पूरे भारत में मिटाक्षरा के अनुसार विचार किया जाता है जबकि बंगाल में दायभाग के अनुसार।
ऋषि याज्ञवल्क्य ने शास्त्र में भी अनेक विद्वानों को हराया था। उन्होंने हमारे समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर इस ग्रंथ की रचना की थी जो आज भी मान्य है। याज्ञवल्क्य ने भारतीय संस्कृति को अमर बनाने की सफल चेष्टा की। संन्यास लेते समय उन्होंने अपनी पत्नी मैत्रेयी को जो उपदेश दिया, वह संपूर्ण उपनिषदों का निचोड़ है।